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Saturday, January 18, 2020

बीती विभावरी जागरी ! जयशंकर प्रसाद

बीती विभावरी जाग री !
अम्बर पनघट में डुबो रही-
तारा घट ऊषा नागरी |

खग कुल-कुल सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो लतिका भी भर लाई-
मधु मुकुल नवल रस गागरी|

अधरों में राग अमन्द पिये,
अलको में मलयज बन्द किये-
तू अबतक सोई है आली!
आंखो में भरे विहाग री !

--- जयशंकर प्रसाद

    प्रस्तुत कविता जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित एक अत्यंत दुर्लभ प्रेम की कविता है जिसमे कवि एक सखी द्वारा अपने प्रिय सखी को कहे गये वचन को प्रस्तुत किये है, जिसमे एक सखी अपने प्रिय प्रेमी की प्रतिक्षा कर रात को देर से सोई है और सुबह उठी नहीं है जबकी सारा जगत जागने की कागार पर है,

प्रथम प्रकरण
     सखी कहती है कि रात बीती चुकी है अब जग जाओ, आकाश रूपी पनघट के सारे तारे-सितारे सूर्य के प्रकाश रूपी घट में डूब रही है अथार्त अंधेरा छट गया है,

दूसरा प्रकरण
    पक्षियो के गाने की कुलकुलाहट है, खेत की कलिया डोल रहे है,  लतिका पत्तिया भी शबनम ओश से भर गयी है, लतिका की गगर शबनम से भर गयी है,

तीसरा प्रकरण
    होठो पे वो रस(जिसका पान नहीं हुआ है) लेकर, अलक केश में मलयज( मलयज हिमालय की एक पेंड है पर्वत श्रृंखला है जहाँ से खुसबू बहोत मशहूर है) बन्द करके तू अब तक सोई है, आंखो में  प्रियें के विहाग बिछडन का रसभर कर...
संक्षिप्त व्याख्या मुशाफिर तबरेज के द्वारा

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शब्दार्थ- विभावरी= रात| अम्बर=आकाश| ऊषा= सूर्य का प्रकाश| खग= पक्षी| किसलय=कली| लतिका= छोटी लता या शाखा| मुकुल=कली| नवल=नया| अधर=होठ| अलक= केश, जुल्फ| विहाग= दुःख, बिछडने का दुःख|

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